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Monday, June 20, 2011

शेर-ओ-शायरी



चेहरे पे बनावट का गुस्सा, आंखों से छलकता प्यार भी है
इस शोख-ए-अदा को क्या कहिये, इनकार भी है इकरार भी है
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सुनते हैं की मिल जाती है हर चीज़ दुआ से
इक रोज़ तुम्हे माँग के देखेंगे खुदा से
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एक बार जो बिखरी तो बिखर जायेगी
जिन्दगी जुल्फ नहीं जो संवार जायेगी
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देखा जो तीर खाके कमींगाह की तरफ
अपने ही दोस्तों से मुलाकात हो गयी
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तुम दूर खडे देखा ही किये और डूबने वाले डूब गए
साहिल को जो मंजिल समझे वो लज्जत-ए-दरिया क्या जाने
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पत्थर के खुदा वहाँ भी पाए
हम चाँद से आज लौट आये
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सारे मुसाफिरों से ताल्लुक निकल पड़ा
गाड़ी में इक शख्स ने अखबार क्या लिया
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रंज से खूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी की आसां हो गयी
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कह रहा है मोज-ए-दरिया से समंदर का सुकूँ
जिसमे जितना ज़र्फ़ है वो उतना ही खामोश है
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जिसकी आवाज़ में सलवट हो निगाहों में चुभन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नही जोडा करते -गुलज़ार
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उम्र भर जलाता रहा इस दिल को खामोशी के साथ
और शमा को इक रात की सोज़-ए-दिली पे नाज़ था
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आये हे बैकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब
किस के घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद
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उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये 
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यही हे जिंदगी कुछ ख़ाक चंद उम्मीदें
इन्ही खिलोनों से तुम भी बहल सको तो चलो
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जिंदगी की बात सुनकर क्या कहें
इक तमन्ना थी जो अब तकाजा बन गयी
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जिंदगी यूं हुयी बसर तनहा
काफिला साथ और सफर तनहा -गुलज़ार
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मैंने ये कब कहा की मेरे हक में हो जवाब
खामोश मगर क्यों हे तू, कोई फैसला तो दे
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कंद-ए-लब का उनके बोसा बे-तकल्लुफ़ ले लिया
गलियाँ खाई बला से, मुह तो मीठा हो गया
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एक हंगामे पे मौकूफ है घर की रोनक
नोहा-ए-गम ही सही, नग्म-ए-शादी ना सही
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मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते

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