इश्क का खेल आम है लेकिन,
इश्क-ए-सादक जहाँ में आम नहीं।
हर तरफ मै ही मै छलकती है,
मस्त यक्सर करे जो जाम नहीं।
हुस्न की हो रही है रुसवाई,
इश्क को अपना एहतराम नहीं।
आओ आदाब-ए-इश्क फिर सीखें,
सच्ची उल्फत हवस का नाम नहीं।
इश्क में अपना खोना है सब कुछ,
साज़-ओ-सामाँ से कोई काम नहीं।
फिर मिटाना है अपना नाम-ओ-निशाँ,
ग़ैर-ए-मोहब्बत कोई नाम नहीं।
इससे आगे है इक मकाम ऐसा,
जिसका कोई निशान-ओ-नाम नहीं।
मस्तियाँ वहाँ बरसती रहती है,
खुम के खुम एक-आध जाम नहीं।
इश्क-ए-सादक जहाँ में आम नहीं।
हर तरफ मै ही मै छलकती है,
मस्त यक्सर करे जो जाम नहीं।
हुस्न की हो रही है रुसवाई,
इश्क को अपना एहतराम नहीं।
आओ आदाब-ए-इश्क फिर सीखें,
सच्ची उल्फत हवस का नाम नहीं।
इश्क में अपना खोना है सब कुछ,
साज़-ओ-सामाँ से कोई काम नहीं।
फिर मिटाना है अपना नाम-ओ-निशाँ,
ग़ैर-ए-मोहब्बत कोई नाम नहीं।
इससे आगे है इक मकाम ऐसा,
जिसका कोई निशान-ओ-नाम नहीं।
मस्तियाँ वहाँ बरसती रहती है,
खुम के खुम एक-आध जाम नहीं।
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